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नेपाली शिव आराती

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 ॐ जय शिव शङ्कर शम्भो जय गिरिजाधीश, शिव जय गिरिजाधीश |जयजय करुणासागर, जयजय करुणासागर पशुपति जगदीश ॥ ॐ हर हर हर महादेव ॥ श्री कैलाश निवास छ गण छन् सहचारी, शिव गण छन् सहचारी। मुण्डमाला छ गलामा, मुण्डमाला छ गलामा रूप छ भयहारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव। डमरु त्रिशुल सुशोभित प्रभुका दुई करमा, शिव प्रभुका दुई करमा । भूषण नागविराजित, भूषण नागविराजित बघम्बर तनमा॥ ॐ हर हर हर महादेव ॥ तीन नयनमा थरिथरि ज्योति छ दिव्य सदा, शिव ज्योति छ दिव्य सदा। वाहन वृषभ मनोहर, वाहन वृषभ मनोहर सँगमा छन् गिरिजा ॥ ॐ हर हर हर महादेव ॥ भष्म विलेपन सुन्दर शिरमा चन्द्रकला, शिव शिरमा चन्द्रकला। कलकल बग्छिन् हरदम, कलकल बग्छिन् हरदम गङ्गा पुण्यजला ॥ ॐ हर हर हर महादेव ॥ ब्रह्मा विष्णु महेश्वर प्रभुका रूप सबै, शिव प्रभुका रूप सबै। सृष्टि स्थिति लय सब हुन्छ, सृष्टि स्थिति लय सब हुन्छ बमोजिम नाथ प्रभुकै ॥ ॐ हर हर हर महादेव ॥ वेद पुराण जति ती छन् प्रभुको वर्णनमा, शिव प्रभुको वर्णनमा । कणकण व्यापक प्रभुको, कणकण व्यापक प्रभुको महिमा त्रिभुवनमा ॥ ॐ हर हर हर महादेव ॥ सुर नर मुनि सब प्रभुकै निशिदिन ध्यान गरी, शिव निशिदिन ध्यान गरी। परमा

नेपाली ॐ जय जगदीश हरे...

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  ॐ जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे। प्रभुका चरण ऊपासक, कति कति पार तरे।।१।। ॐ जय जगदीश हरे.... मनको थाल मनोहर, प्रेमरूप बाती।  भाव कपुर छ मंगल आरती सब भाँती।।२। ॐ जय जगदीश हरे.... नित्य निरञ्जन निर्मल, कारण अविनाशी।  शरणागत प्रतिपालक,  चिन्मय सुखराशी।।३।। ॐ जय जगदीश हरे... सृष्टि स्थिती लय कर्ता२, त्रीभुवनका स्वामी।  भक्तिसुधा बर्षाऊ, शरण पर्‍यौं हामी२।।४।। ॐ जय जगदीश हरे.. आसुरभाव निवारक२, तारक सुखदाता।  गुण अनुरूप तिमी हौ, हरिहर औ धाता२।।५।। ॐ जय जगदीश हरे... युगयुग पालन गर्छौ२, अगणितरूप धरी।  लीलामय रसविग्रह, करूणामूर्ती हरि२।।६।। ॐ जय जगदीश हरे... समता शन्ति प्रदायक२ , सज्जनहितकारी।  चरण शरण अब पाँऔँ, प्रभु भवभय हारी२।।७।। ॐ जय जगदीश हरे... भाव मनोहर देऊ२, साधक-फलदायी।  जीवन धन्यबनोस्, प्रभु-पदसेवा पायी२।।८।। ॐ जय जगदीश हरे... संयम सुरसरिताको२, अविरल धार वहोस्।  जति जति जन्म भए पनि , प्रभुमा प्रेम रहोस्२।।९।।ॐ जय जगदीश हरे... प्रेमसहित धूप-आरती२, जसले नित्य गर्‍यो ।  दिनदिन निर्मल बन्दै, त्यो भवसिन्धु तर्‍यो२ ।।१०।। ॐ जय जगदीश हरे....

शिवाष्टकम्

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प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम् । भवद्भव्य भूतेश्वरं भूतनाथं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ १ ॥ गले रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकाल कालं गणेशादि पालम् । जटाजूट गङ्गोत्तरङ्गै र्विशालं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ २॥ मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महा मण्डलं भस्म भूषाधरं तम् । अनादिं ह्यपारं महा मोहमारं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ३ ॥ वटाधो निवासं महाट्टाट्टहासं महापाप नाशं सदा सुप्रकाशम् । गिरीशं गणेशं सुरेशं महेशं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ४ ॥ गिरीन्द्रात्मजा सङ्गृहीतार्धदेहं गिरौ संस्थितं सर्वदापन्न गेहम् । परब्रह्म ब्रह्मादिभिर्-वन्द्यमानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ५ ॥ कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भोज नम्राय कामं ददानम् । बलीवर्धमानं सुराणां प्रधानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ६ ॥ शरच्चन्द्र गात्रं गणानन्दपात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम् । अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ७ ॥ हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वेदसारं सदा निर्विकारं।  श्मशाने वसन्तं मनोजं दहन्तं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ८ ॥ स्वयं यः

सरस्वत्यष्टकम्

।। सरस्वती अष्टकम्।। रवि-रुद्र-पितामह-विष्णु-नुतं, हरि-चन्दन-कुंकुम-पंक-युतम् ! मुनि-वृन्द-गजेन्द्र-समान-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।। शशि-शुद्ध-सुधा-हिम-धाम-युतं, शरदम्बर-बिम्ब-समान-करम्। बहु-रत्न-मनोहर-कान्ति-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।।  कनकाब्ज-विभूषित-भूति-पवं, भव-भाव-विभावित-भिन्न-पदम्। प्रभु-चित्त-समाहित-साधु-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।।  भव-सागर-मज्जन-भीति-नुतं, प्रति-पादित-सन्तति-कारमिदम्। विमलादिक-शुद्ध-विशुद्ध-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।।  मति-हीन-जनाश्रय-पारमिदं, सकलागम-भाषित-भिन्न-पदम्। परि-पूरित-विशवमनेक-भवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।।  परिपूर्ण-मनोरथ-धाम-निधिं, परमार्थ-विचार-विवेक-विधिम्। सुर-योषित-सेवित-पाद-तलं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।।  सुर-मौलि-मणि-द्युति-शुभ्र-करं, विषयादि-महा-भय-वर्ण-हरम्। निज-कान्ति-विलोमित-चन्द्र-शिवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।।  गुणनैक-कुल-स्थिति-भीति-पदं, गुण-गौरव-गर्वित-सत्य-पदम्। कमलोदर-कोमल-पाद-तलं,तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्।। त्रिसंध्यं यो जपेन्नित्यं, जले वापि स्थले स्थितः।  पाठ-मात्रे भवेत् प्राज्ञो, ब्रह्म-निष

।।आपदुद्धारक बटुक भैरवस्तोत्रम्।।

।।आपदुद्धारक बटुक भैरवस्तोत्रम्। । ॥श्रीगणेशाय नमः। श्री सरस्वत्यै नमः।श्री बटुकाभैरवाय नमः॥ मेरुपरष्ठेसुखासीनं देवदेवं जगदंगुरुम्। शङ्करं परिपप्रच्छ पार्वती परमेश्वरम्॥१ श्रीपार्वत्युवाच॥ भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्व शास्त्रागमादिषु। आपदुद्धरणं मन्त्रं सर्वसिद्धिकरं परम्॥२ सर्वेषां चैव भूतानां हितार्थं वाञ्छितम्मया। विषेषतस्तु राज्ञां वै शांतिपुष्टिप्रदायकम्॥३ अङ्गन्या करन्यास देहन्यास समन्वितम्। वक्तुमर्हसि देवेश मम हर्षविवर्धनम्॥४॥ शङ्कर उवाच॥ श्रृणु देवि महामन्त्रमापदुद्धरहेतुकम्। सर्वदुःखप्रशमनं सर्वशत्रुविनाशनम्॥५ आपस्मरादिरोगाणां ज्वरादीनां विषेशतः। नाशनं स्मृतिमात्रेण मंत्रराजमिमं प्रिये॥६ ग्रहारोगभयानां च नाशनं सुखवर्धनम्। सर्वकामार्थदं पुण्यं राज्यभोगप्रदं नृणाम्॥७ आपदुद्धारणमिति मन्त्रं वक्ष्याम्शेषतः। प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य बीजप्रणवमुद्धरेत्॥८ बटुकायेति वै पश्चादापदुद्धारणाय च। कुरुद्वयं ततः पश्चाद् बटुकाय पुनः क्षिपेत्॥९ देवीप्रणवमुद्धृत्य मन्त्रोद्धारमिमं प्रिये। मन्त्रोद्धारमिदं देवी त्रैलोक्यस्यापि दुर्लभम्॥१० ॐ ह्रीं वं बट

वेदान्तसारः

वेदान्तसारः मङ्गलाचरणम्। अखन्डं सच्चिदानन्दमवाङ्मनसगोचरम्। आत्मानामखिलाधारमाश्रयेऽभीष्टसिद्धये॥१॥ गुरुवन्दनम्। अर्थतोऽप्यद्वयानन्दानतीतद्वैतभनतः। गुरुनाराध्य वेदान्तसारं वक्ष्येयथामति॥२॥ उपनिषदामेव वेदान्तसंज्ञा। वेदान्तो नामोपनिषत्प्रमाणं तदुपकारीणि शारीरकसूत्रादीनि च। अस्य वेदान्त प्रकरणत्वात्तदीयैरेवानुबन्धैस्तद्वत्तासिद्धेर्न ते पृथगालोचनीयाः। अनुबन्ध चतुष्टयम्। तत्रानुबन्धो नामाधिकारिविषयसम्बन्धप्रयोजनानि॥३॥ अधिकारिवर्णनम्। अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेनापाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनिजन्मातरे वा काम्यनिसिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनासाधनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनाचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता॥४॥ काम्यादिकर्मस्वरूपाणि। काम्यानि स्वर्गादिष्टसाधनानि ज्योतिष्टोमादीनि। निसिद्धानिनरकाद्यनिष्टसाधनानिब्राह्मणहननादीनि। नित्यान्यायकरणे प्रत्यवायसाधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि। नैमित्तिकानि पुत्रजन्माद्यानुबन्धीनि जातेष्ट्यादीनि। प्रायश्चित्तानि पापक्षसाधनानि चान्द्रायणादीनि। उपासनानि सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डि

रति मञ्जरी

।रति मञ्जरी। छोटा सा परिचय रति के बारे में:- कहें तो यह मुख्यतः काम शास्त्र का ग्रन्थ है।ग्रन्थकार हैं जयदेव। रति कें ब्यावाहारिक पक्ष भी देखें काम मानव जीवन का अति ही आवश्यक पक्ष है, गृहस्त जीवन का तो अभिन्नतम व्यवाहार है। काम की सुन्दरता यह है की भोगों से विमुक्ती भी यही दिला सकता हैं, यदी आप योग दर्शन में निर्दिष्ट शौच का कर्मठता से पालन करें तो। यहाँ अतीशय रुप से भोग के पक्ष में मै नही हूँ, इस की सुन्दरता को नकार भी नही सकतें हैं, शरीर अशक्त होने पर चक्षु से रुप लावण्य का पान करने वाले बहुधा सुन्दरता प्रेमी जन भी हैं ही। अलं याहाँ कतीपय श्लोक जिन में स्त्रिपुरुष कि जातीयों का बर्णन तथा परिचयात्मक हैं वह तो सामुद्रिक शास्त्र के अध्येताओं के लिए भी उपयोगी होंगे। ॥ग्रन्थकृन्मङ्गलम्॥ नत्वा सदाशिवं देवं नागराणां मनोहरम्। रच्यते जयदेवेन सुबोधा रतिमञ्जरी॥१ रतिशास्त्रं कामशास्त्र तस्य सारं समाहृतम्। सुप्रबन्धं सुसंक्षिप्तं जयदेवेन भाष्यते॥२ ॥स्त्रीपुंसोर्जातिलक्षणम्॥ पद्मिनी चित्रिणी चैव शङ्खिनी हस्तिनी तथा। शशो मृगो वृषsश्वाश्च स्त्रीपुंसोर्जातिलक्षणणलम्॥३ ॥पद्मिनी लक्षणम्।